कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

शनिवार, 18 जुलाई 2015

केदारनाथ सिंह (2) - यह पृथ्वी रहेगी

केदारनाथ सिंह हिंदी के अकेले कवि हैं, जो कविता की उदात्त परंपरा से लड़ते रहते हैं और उसका विकेंद्रीकरण करते हैं। ऐसा करते हुए वे चुपचाप आम आदमी की लड़ाई में शामिल हो जाते हैं और इतना निकट पहुँच जाते हैं कि अविश्वास की स्थिति पैदा कर देते हैं कि वे इस संघर्ष में शामिल हैं भी या नहीं? और ऐसा कर वह स्वयं को महाकवित्व के उदात्तबोध तथा उसकी कुंठाजन्य मानसिक विक्षिप्तता, जिसकी एक परंपरा रही है, दोनों ही से मुक्त रहते हैं। इसीलिए जब वे कहते हैं कि -
और एक सुबह मैं उठूँगा
मैं उठूँगा पृथ्वी समेत।
तब हमें विस्मय नहीं होता क्योंकि, इसके पहले वे पृथ्वी को इतनी हल्की बना चुके होते हैं कि कोई भी उसकी एक पोटली बना अपनी काँख  में दाबे चल सकता है -
यह पृथ्वी रहेगी
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक, जैसे दाने में
रह लेता है घुन।
केदारनाथ सिंह बौद्धिकता को नहीं सरलता को अपनी शक्ति बनाते हैं। इसीलिए जब वे इस विश्वास से भरे चल रहे होते हैं कि मुकाम पर पहुँच ही जाएंगे और रास्ता खो जाता है, तो बौद्धिकता के आवेग में भटकाव का खतरा नहीं लेते। क्योंकि यायावरी कवि का लक्ष्य नहीं, पड़ाव है। जहाँ आगे के मंजिलों की कुंजियाँ रखी हैं। इसलिए, रास्ता खोने पर वे एक बूढ़े किसान के पास जाते हैं और राह पूछते हैं, तब बूढ़ा बोलता नहीं एक ढेला उठाकर चरती गाय की ओर फेंकता है, मानो कह रहा हो, अपना अभिमान त्यागकर इन भोले पशुओं से भी पूछोगे तो रास्ता बता देंगे वे -
चली जा रही थी गाय
उधर रास्ता था
उधर घास में धँसे हुए खुर-सा
चमक रहा था रास्ता।
आज ऐसे बूढ़े किसान की इस सलाह को सुनने का धैर्य महानगरीय परिवेश में विरले ही किसी कवि में जिंदा है। कोई हमसे पूछे कि मोटा-मोटी केदारजी ने क्या लिखा है तो मैं कहूँगा कि प्रकृति लिखा है या पृथ्वी लिखा है, पर प्रकृति उनके यहाँ वानस्पतिक नामों की आरोपित ध्वनि नहीं है। प्रकृति लिखते-लिखते कब वह मनुष्य लिखने लगते हैं पता नहीं चलता? लिखना पहाड़ पर शुरू करते हैं और लिखा जाने लगता है श्रमिक -
विराट आकाश के जड़, वक्षस्थल पर
वे रख देते हैं अपना सिर
और देर तक सोते हैं
क्या आप विश्वास करेंगे
नींद में पहाड़
रात भर रोते हैं।
इसी तरह बैल लिखते-लिखते वे कब किसान लिख देते हैं, कि विस्मय होता है -
वह एक ऐसा जानवर है जो दिन-भर
भूसे के बारे में सोचता है
रात भर
ईश्वर के बारे में।
सौंदर्य की सृष्टि करनी हो या किसी हकीकत को दर्शाना हो अपनी रहस्यमयी भाषा की आधारशिला वो यथार्थ की वैश्विक पृष्ठभूमि में रखते हैं और हमें चकित होना पड़ता है कि अरे यह भी सच है -
वे ताबड़-तोड़, बाँध रहे हैं अपने बोझे
जैसे चुराये गए हों
सूरज की टाल से।
जमीन में जब नाइट्रोजन और खनिजों की कमी होती है, तो कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जो अपनी जड़ें हवा में फेंकते हैं। इसी तरह केदारजी को भी जब अपनी जमीन से अपेक्षित पोषण नहीं मिलता है, तो वे अपनी जड़ों को जीवन की विभिन्न दिशाओं में फेंकते हैं। और यह प्रमाण है  कवि की अदम्य जिजीविषा का कि समय का प्रदूषण भी उनकी उन्मुक्तता को दूषित नहीं कर पाता। वे उसमें भी अपनी जड़ें फेंक देते हैं और  उसे उर्वर बनाकर पोषण पाते हैं -
मैंने देखा,वहां! उसकी झुर्रियों में
अब भी जगह थी
जहाँ एक चिडिय़ा
अपना घोंसला बना सकती है।
यह जिजीविषा ही है कि एक बूढ़े, उदास गड़रिये के झुर्रीदार चेहरे में भी वे एक शाखा-सी आश्रय-क्षमता पाते हैं जहाँ एक पक्षी अपना घोंसला बना सकता है।
केदारजी की एक महत्त्वपूर्ण कविता है 'टमाटर बेचने वाली बुढिय़ाÓ, जिसमें वह बुढिय़ा के चेहरे की तुलना टोकरी से करते हैं। यहाँ वे श्रम  ही नहीं देखते, करुणा भी देखते हैं, जो अपने बेटे के लिए बुढिय़ा के जेहन में है, जिसके लिए वह बोझ ढोती है और खुद टोकरी की तरह  जीवन को ढोकर भी खाली रह जाती है -
मुझे टमाटरों की रोशनी में
उसका लहकता चेहरा दिखाई पड़ता है
यह माँ का चेहरा है।
और यह लहक मात्र टमाटरों का प्रतिबिम्ब नहीं है। इन टमाटरों में उसके बेटे की छवि भी छिपी है। जीवन और प्रकृति में जरूरत से ज्यादा कृत्रिम हस्तक्षेप केदार जी पसंद नहीं करते। वे चेतावनी देते हैं कि बंदी बनाकर हम
प्रकृति तथा जीवन के सौंदर्य को सक्रिय नहीं रख सकते। नुचे हुए परों और पंखुरियों से सजी सेज को वे गर्हित दृष्टि से देखते हैं और वहाँ उनका दृष्टिकोण अतिमानवीय हो जाता है। इस संदर्भ में वे खुद को भी माफ  नहीं कर पाते -
उसने मुझे एक बार
एक अजब-सी कातर दृष्टि से देखा
और दम तोड़ दिया
तब से मैं डरने लगा शब्दों से।
केदारजी की आरंभ की एक कविता है - बादल ओ। इसमें धानों के बच्चे बादल को देखकर उत्साह से भर जाते हैं और उसे बुलाते हैं कि  उनका जी उन्मन हो गया है। यह कविता पाठक को इस तरह अपनी गति में तरंगायित करती ले भागती है कि पाठक सोच भी नहीं पाता कि  प्रकृति की ओट में श्रम ही वहाँ भावों की चाल में, चंचलता भर रहा है। क्योंकि धान एक प्रच्छन्न प्राकृतिक बिम्ब नहीं है, उससे मानवीय श्रम  का जीवंत रिश्ता है और बादल को धान के ही नहीं किसान के बच्चे भी बुला रहे हैं। क्योंकि अपने थोड़े-बहुत वैज्ञानिक संसाधनों से  भारतीय किसान की जरूरतें पूरी नहीं पड़तीं। वह प्रकृति की कृपा पर ही आश्रित रहता है तभी तो बच्चे पुकारते हैं -
हम कि नदी को नहीं जानते
हम कि दूर सागर को नहीं जानते
हमने सिर्फ तुम्हें जाना है
तुम्हें माँगते हैं
ओ सुनो बीज वर्षी बादल
ओ सुनो अन्न वर्षी बादल।
'धब्बा' शीर्षक से उनकी एक कविता है। यह धब्बा रक्त का है, जो किसी भी पीडि़त व्यक्ति का हो सकता है, जिसमें हत्यारे का चेहरा दमक रहा  है और जो बीच सड़क पर पड़ा कराह रहा है, जिसे कोई सुन नहीं रहा है। यहाँ तक कि कराह सूखकर मर जाती है। काली हो जाती है। समय  भी अपनी गति से उसके पास आता है। वह भी हत्यारे के पक्ष में उसे धोकर मिटा देता है, ताकि हत्यारा पहचान में ना आ सके -
अब बारिश खुश
कि उसने धो डाला धब्बे को
धब्बा खुश कि जैसे वह कभी सड़क पर
था ही नहीं।
यहाँ इसकी तुलना रघुवीर सहाय की कविता रामदास से करें, तो यथार्थ पर प्रकाश पड़ता है। रामदास कविता में रामदास की हत्या का  विवरण तटस्थ ढंग से दिया जाता है और दर्शाया जाता है कि स्थिति इतनी विषम है कि किसी के पक्ष में जाना खतरनाक है। बस इसकी खबर  दी जा सकती है। इस कविता में पत्रकारिता का दृष्टिकोण कवि पर हावी है और सरल और गतिशील होकर भी कविता यांत्रिक हो जाती है।
पर इसके मुकाबले 'धब्बा' में अपनी मनोविज्ञानी अस्पष्टता के बावजूद कवि धब्बे से तटस्थ नहीं है। वह रेखांकित करता है कि धब्बे को भय है,  वह अपना चेहरा छुपा ले जाना चाहता है, जिसमें समय (बारिश) उसकी मदद करती है, पर उसका एक गवाह कवि है और वह रामदास की हत्या  के विवरणकर्ता की तरह तटस्थ नहीं है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जहाँ धब्बे में हत्यारे को डर है और अपनी पहचान मिटने पर वह खुश हो  रहा है वहीं रामदास में जनता ही सहमी है। यहाँ मीडिया और खबरों के दबाव में कवि हत्या का मनोविज्ञान भी भूल जाता है कि डर  हमेशा हत्यारे को होता है जिसके दबाव में वह हत्या करता है। जनता का डर तात्कालिक होता है, जिससे वह देर-सबेर संगठित होकर  निपट लेती है। ऐसे में कवि को जनता का डर बढ़ाना नहीं चाहिए क्योंकि उसे डराना उसको हत्यारा बनाना है। समाचार पत्रों के खबर  देने के ढंग का ही नतीजा है कि इधर भीड़ आक्रामक होकर धैर्य खोती जा रही है। नतीजतन हत्यारा कहीं छिपा रहता है और
पावरोटी चुराकर भागने वाले को भी जनता खदेड़ कर मार दे रही है। नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता है , 'शासन की बंदूक' '
जली ठूंठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।
केदारजी कि कविता भी उसी कोकिल की तरह है। निराशा जब हमें ठूंठ कर जाती है, तो सारी पहरेदारी के बाद भी वह अंतर्मन में  पैठकर भीतर के अंकुरों को अपनी स्वर लहरी से सजीव और सजग कर जाती है। यह उनकी सहज अदम्यता ही है कि वे चुनौती दे पाते  हैं। पुलिस और थाने की धज्जियाँ उड़ाते हैं -
मैं उस तरफ  इशारा करता हूँ
जिधर थाना नहीं है।
वे जानते हैं कि शोषण का प्रतीक थाना हर जगह नहीं है। उसका भय सार्वजनिक है और उसकी उपेक्षा करना भी उससे लडऩे का  एक तरीका है, क्योंकि शोषक वर्ग अपनी उपेक्षा कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।



रविवार, 21 जून 2015

राघवचेतन राय -आमजन की त्रासदी के कल्ले


‘‘मैंने गिरी बेचते हुए
सांवले छोकरे को ठुमककर
चलते हुए और हंसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
अगर मेरी बेटी उसे चाहने लगे
तो मैं उसकी उससे शादी कर दूंगा
और अर्जी से मर्जी देने वाले
पड़ोस के उस अपाहिज प्रेमी से कहूंगा
ईस्ट इडिया चली गई तुम भी दफा
हो जाओ।’’
वह गिरी बेचने वाला लड़काशीर्षक कविता की ये पंक्तियां कवि राघवचेतन राय की हैं। राघव के यहां भाषा के प्रति जो बरताव है, वह आश्चर्यचकित करने वाला है। शब्दों के प्रयोग में ऐसी सधी मितव्ययिता आज के डिटेल्सों से भरी कविता के जमाने में मुहाल ही है। फिर पंक्तियों के बीच का खालीपन भी जिस तरह
निहितार्थों को छुपाए चलता है, वह गौर करने लायक है। अरसा पहले सविता सिंह का पहला कविता संग्रह पढ़कर मैं हैरत में रह गया था, अब राघव की कविताओं ने मुझे फिर हैरत में डाला है।
‘‘तालियां पीटते रहते हैं/पर्यटक/गोलकुंडा के ओसारे जिससे/पुराने दिन या शायद/खोई मूसी नदी फिर उठ
जाए//जितना आदमी से आदमी बनता है/आसमान/यानि मालिक हावी हो जाता है/इंसान को फूट और वर्णांधता
का/टापू बनाते हुए//नदियां सूख रही हैं/उजाड़, दुर्ग पर/बज रही हैं बधाइयां/केवल कुचले हुए रहते
हैं/नीचे/प्रतीक्षारत सवारियां/ढोने वाले।’’ (आबादी-1)
यहां हैदराबाद की मूसा हो या दिल्ली की यमुना सबकी वही हालत है। तालियां पीटते पर्यटकों के लिए नदियों की
कीमत पर हम बहुरंगी नाले बनवा रहे हैं और सबको ढोने वाले, घिसटते हुए तालियों का बोझ खींच रहे हैं। आमजन की त्रासदी के कल्ले राघव की कविता में हर जगह फूटते नजर आते हैं। राघव की कविताओं में अंतर्निहित एक राग भी हर जगह बजता दिखता है, विराग से जहां-तहां दबाया जाता हुआ। माने एक मुकम्मल जीवन है जिसमें प्रकृति भी है, अपने उखड़े राग के चिकलन के साथ। इन पंक्तियों को देखें- दक्षिणी
हवा में/आसमान ऐसा नीला हो गया है/जैसे/ऊपर उड़ती चीलों के पंखों पर भी/नीला रंग लग जाएगा/मौसम मेरे मन माफिक/हालांकि शायद ही कभी हुआ/इनके विषय में जैसा भी/कह लो सुन लो।’’
राघव की महाश्वेता देवी और अली सरदार जाफरी को याद करती दो कविताएं हैं। जाफरी का चित्र तो जबरदस्त है- ‘‘सफेद बाल/अपने हाल पर छोड़े हुए/जैसे पहाड़ों पर/लुढ़कती हुई बर्फ/ढोते हुए आता है/सुंदर वृद्ध गमगमाती चांदनी में/कविता कहने।’’ यहां अरुण कमल की बादशाह खान के बुढ़ापे पर लिखी गई
कविता याद आती है।
जीवन के विस्तारों में बहती दुख की नदी राघव के यहां हर जगह बलखाती दिखती है, किनारों को तोड़ती, कठोर
पत्थरों को घिसकर चिकनाती। दुख-दर्द मूल स्वर है कवि का बड़े छोटे लोग  कविता में वे लिखते भी है-  ‘‘दर्द जो रिश्ते में/मेरा सबकुछ लगते हैं/ओझल था मेरे मनोलेख से’’
व्यवस्था के रसूखदार पदों पर रहे हैं राघव, जब ठकुरसुहाती सहज ही होती है और जो काटती जाती आदमी को,
उसके अपने ही दर्द से वह सामने होते हुए भी ओझल होने लगता है। पर आखिर ऐसा होने नहीं दिया राघव ने- तभी तो वंचितों के निर्वाचन क्षेत्र की परख कर पाए वोतथाकथित/छोटे लोगों के पास/आशा की नाव/पतवार और पुल है/सिंहासन की लड़ाई के/कत्लेआम के बाद/बच जाने का सद्भाग्य।’’

मंगलवार, 3 मार्च 2015

शरद रंजन शरद - आत्मोधेड़बुन की कविताएँ

शरद की कविताएँ आत्मोधेड़बुन की कविताएँ हैं। आपाधापी भरे इस समय में जब विचारों और इतिहास के अंत की घोषणाएँ जब-तब होती रही हैं, कवि के लिए कुछ भी तय करना कठिन हो जाता रहा है। ऐसे में वह दो छोरों के बीच खुद को झूलता महसूस करता है। इसका फल यह होता है कि कभी तो वह इस दुनिया को दुरुस्त करने का काम अकेले ही कर डालना चाहता है और कभी ‘एको अहं’ वाली अपनी ही मुद्रा को झटककर अपने छोटे-छोटे प्रयासों की निरंतरता पर बल देता है –
भर रहा हूँ देह और धरती के हर चुल्लू में पानी नहीं तो आधे पड़ जाएंगे प्यास के माथे...(बीस सौ पचास) 
या ... तो कुछ करूँ कि पड़े थोड़ा खलल ठहरी सहमी चेतना पर फेंकूँ कंकड़ रस्साकशी के द्वंद्व में डिगती मनुष्यता की ओर लगाऊँ अपना बल (हूँ तो)
दरअसल यह जो सहमी चेतना है वह कवि की है और द्वंद्व भी उसी का है, पर इस द्वंद्व में अपना पक्ष कवि को पता है और वह है मनुष्यता का पक्ष। समकालीन कविता की एक हस्ताक्षर नीलेश रघुवंशी जहाँ अपने नए संग्रह में पुराने कपड़ों की तरह घिस चुकी जीवन-स्थितियों को बेचकर नए चमचमाते बर्तन खरीद लाने की बात करती हैं, वहीं शरद का ‘बरताव’ पुरानी चीज़ों के प्रति अलग है - वे इन्हें जोगा कर रखना चाहते हैं। पुरानी चीजों के प्रति मोह कवि का स्थायी भाव है। ‘बरताव’, ‘जुगत’, ‘सहेजना’ आदि कविताओं में इन भावों की बहुरंगी अभिव्यक्तियाँ आप पा सकते हैं।
कहीं-कहीं तो सहेजने की वृत्ति अति पर पहुँची दिखती है, जब कवि यह आशा करता है कि कबाड़ में बेचे गए उसके सामान में से भी कोई कुछ सहेज ले। अगर कबाड़ी को बेची गई चीज़ें इतनी ही महत्त्वपूर्ण लगती हैं कवि को, सहेजने लायक, तो खुद भी तो कवि कबाड़ी का धंधा अपना सकता है, दुनिया भर की बेकार हो चुकी चीजों को सहेज सकता है।

शरद की कविताओं पर वरिष्ठ कवि अरुण कमल का प्रभाव दिखता है। डर के बहुआयामी चित्र यहाँ भी हैं। अरुण कमल को अगर टिकट पर जीभ फिराते ज़हर का भय होता है, तो शरद को भीड़ भरी सड़कों से गुजरना खतरनाक लगता है और इसका कारण कवि के शब्दों में -  हर जगह होने-जाने वाला अपना जो मन उसी में अगर लग रहा हो घुन। ‘मृत्युजीवी’, ‘युद्ध’, ‘आदमी के औजार’ आदि कविताओं में कवि अपने समय की विकृतियों से जूझता दिखता है। आँचलिक भाषा भोजपुरी के शब्दों का प्रयोग शरद ने खुलकर किया है और उससे अपनी अभिव्यक्ति में धार भी पैदा कर दी है। यह अच्छी बात है कि कवि अपनी खूबियों-ख़ामियों को बिना दुराव-छिपाव के शब्दों में टाँकता चलता है, पाठक उसे पढ़कर सराह सकते हैं और असहमत होने का अधिकार तो वे रखते ही हैं। 

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

प्रसन्न चौधरी - पौराणि‍क डर व आ‍धुनिक विश्वास

मन एव मनुष्याणां’ ऐसे कवि की कविता है, जिसके विश्वास पौराणिक हैं और डर आधुनिक। अपने पौराणिक विश्वासों से कवि इन आधुनिक डरों का मुकाबला करना चाहता है। ऐसा करते हुए वाल्ट डिज्ने और रूपर्ट मडोक के आतंक से त्राहिमाम करता कवि वेद और गीता की पंक्तियों की शरण लेता है। अपने सामाजिक विकास को उसके संदर्भों में परिभाषित करता हुए कवि थककर अपने एकांतिक विश्वासों की शरण लेता है। वह अहं ब्रह्मष्मि-तत्वमसि-इदं अहम् अस्मि से लेकर ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या जैसी अवधारणाओं को कभी उसी रूप में और कभी कई आवरणों में छुपाकर प्रस्तुत करता है। और मन ही मनुष्य है की वैदिक अवधारणा में खुद को आरोपित करता है। ऐसा करते हुए वह मन, जो कि अनन्त है की बलि देने की बात करता है और सर्वस्व दान की महिमा बखानता है। 
वस्तुतः यह कविता ‘हारे को हरिनाम’ है। ‘‘मन ही मनुष्य है’’ विकास के उस स्टेज की अवधारणा है, जब मनुष्य पशु से मानव की श्रेणी में आने को प्रयासरत था। तब मन (इच्छा) के उद्भव ने ही उसे मनुष्य के रूप में अलग पहचान दी। तब श्रम और उसका संघर्ष पूरी तरह सामने नहीं आया था। जब जंगल फल-मूल से भरे थे और कटे हुए खेतों से चुने गए अन्न से आश्रमों का काम चल जाता था। आज एक ओर जहाँ मन अनंत नहीं रह गया है। उसकी उड़ान बार-बार बाधित हो रही है। और सारा काम बेमन का रह गया है। आज दुनिया परस्पर की दासता से संचालित हो रही है। मन पर दुनिया भर की चिंताओं का बोझ है। ऐसे में मन की बलि से जरूरी है कि हम चिंता करें कि मन बचे कैसे? कैसे उसकी अनंतता वापस हो?
यूं कवि का खुद मन की अनंतता पर विश्वास नहीं रह गया है तभी तो अंत में वह लिख जाता है कि - ‘‘हर चीज का अन्त था। लेकिन मेरी कविता तो अनन्त की कविता थी।’’ अंत में हैं की जगह थी का प्रयोग कर खुद कवि कविता को अंत की कविता मान लेता है। शायद वह यथार्थ से इतना आतंकित है कि इतिहास के बाहर जा ही नहीं पा रहा। प्रलय के पूर्व मन की अनन्तता और उसकी बलि का विचार गल्प हो सकता है यथार्थ नहीं। इस अंतःगामी दर्शन से विकास और
विनाश का जिन्न फिर अंगीठी में समाने वाला नहीं। जनसंख्या नियंत्राण और मन को बचा लेने की चेतना से ही बचाव संभव है। मन के बेमन होते जाने के अलावे इसका दूसरा पहलू यह है कि आज केवल आदिम युग का मन ही नहीं रह गया है। आबादी के एक हिस्से में मन के अलावे उसे नियंत्रित करने वाली चेतना भी विकसित हुई है, जिसका इस विश्व मानव की अनंत की कविता में कोई जिक्र नहीं। और आज मन की बलि देने के रहस्यवादी तर्क की बजाय मन को बेमन होने से बचाने के लिए अपनी चेतना की भट्ठी में लकडि़याँ डालते रहने की जरूरत है। क्योंकि बाजार के बहुराष्ट्रीय हमले से बचने के लिए मात्रा गीता के सत्य, दया वाले मंत्रों का जाप काफी नहीं है जैसा कि कवि अंत, में करने की सलाह देता है, क्योंकि इन मंत्रों के जाप से आगे जाकर उसे यथार्थ की भूमि पर स्थापित करने की कोशिश गाँधी और बुद्ध कर चुके हैं। यह  कविता क्षणों के उदात्तीकरण के सिवा कुछ नहीं है। इकबाल का एक शेर है -  अपने मन में डूबकर पा जा सुरागे जिन्दगी, तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन। इसका जो निहितार्थ है वही ‘मन एव मनुष्याणं’ कविता का सार है। अपने मन में डूबकर जिन्दगी का रहस्य जानने की सलाह इकबाल उसे देते हैं, जो औरों का बनने की क्षमता खो चुके हैं। परिशिष्ट में भारतीय चिन्तन विधि पर टिप्पणियाँ करता कवि एक जगह कहता है कि भेदों की नयी सत्ताएँ भेदों की पुरानी सत्ताओं की जगह लेती जाती है। फिर किस मोह में कवि आधुनिक डरों के मुकाबले पौराणिक दर्शन की शरण लेता चाहता है। नयी भेद सत्ताएँ जन्म ले लेंगी हमें सचेतन ढंग से काम जारी रखना है। पर कवि पर तो भेदों की सत्ता से ज्यादा अभेदवाद का भूत सवार है। पूरी सृष्टि में उसे अपनी जन्म कथा के अलावे कुछ सूझता ही नहीं है - ‘‘जनमने की अनगिनत कहानियाँ हैं। और इन सबमें मैं हूँ’’। भेदों की नहीं, संयोगों की सत्ता को ही वह देख पाता है और उसके लिए सत्य मात्र नियति है। नियतिवाद के मोह में वह सारे विकास को नकारता है और अशोक वाजपेयी की तरह घोषित करता है - ‘कि सब कुछ वही है कुछ बदलता नहीं है।’ पत्थर के औजारों से प्रक्षेपास्त्रों तक यही है आदम जात का सफरनामा बाकी सब भ्रम है। भास, कालिदास, शेक्सपीयर, इमरसन, बुद्ध, गाँधी सबको कवि भ्रम बतलाता है। लेकिन वे हमारे पशुत्व के बारे में सिर्फ भ्रम जगाते हैं हम वही हैं जो थे - पाखंडी पशु... सभी फेंकते पत्थर दूसरे पर कोई नहीं झाँकता अपने भीतर। अब पाठक बताएँ यह भ्रम क्या शंकर के अद्वैती भ्रम से अलग है। यही सच है तो कविता किसलिए।

बद्री नारायण भी इस सदी को हत्यारों की सदी मानते हैं। शायद यह एक नई दृष्टि है, जो गाँधी-लेनिन-माओ-मंडेला की सदी को हत्यारों की सदी साबित करती है। शायद इनके लिए गाँधी के सच से बड़ा गोडसे का सच है। दिनकर ने लिखा था - ‘‘झड़ गई पूंछ रोमांत झड़े, पशुता का झड़ना बाकी है।’’ पर उन्होंने पशुता को अपरिवर्तनीय सच नहीं कहा था। उन्हें विश्वास था कि पशुता तो बाकी है वह कभी निर्मूल होगी। वस्तुतः पशुता नहीं पशुता के साथ मनुष्यता का द्वंद्व सच है। मनुष्यता का प्रबल पक्ष यह कि पशुत्व से संचालित सारी शक्तियाँ भी अपने क्रूर कार्यों को मानवीय दर्शाने की कोशिश करती हैं, पर मनुष्य कभी भी अपने को एक पशु की तरह देखने की कोशिश नहीं करता। मन एव मनुष्याणां, कविता की तुलना राजकमल चौधरी के ‘मुक्तिप्रसंग’ से की जा सकती है। मुक्तिप्रसंग अपेक्षाकृत सघन कविता है और वहाँ जटिलताओं के आयाम भी ज्यादा है। मुक्तिप्रसंग में भी एक त्रिशूल है। कोशी और कमला बलान की पृष्ठभूमि दोनों जगह है। दोनों में स्त्री-कृष्ण विवर, उग्रतारा और महाजननी है। दोनों ही मुक्ति की गाथा हैं। पर जहां मुक्तिप्रसंग मनुष्यता की मुक्ति का व्यक्तिगत प्रयास है वहीं ‘‘मन एवं मनुष्यणां’’ व्यक्ति की मुक्ति का व्यक्तिगत प्रयास। जहाँ साफ-साफ कह देने का साहस राजकमल चौधरी के बयान को आकर्षित करने वाली कविता बना डालता है। वहीं साहस की कमी से यह कविता एक सुंदर चंदन लिपे शव की झाँकी बन जाती है। कवि के अनुसार गाँधी, और बुद्ध के अनुयायी नरमुंडों के व्यापारी हैं। क्या कवि ने कभी अनुयायी बनने की कोशिश की? क्या वह भ्रष्ट हो गया? कवि एक ऊँचाई से इस दुनिया को देखता है, उसे सब बौना नजर आता है। यह कविता इसी बौनेपन से त्रस्त भारतीय मनीषा के समाधिस्त होने का प्रयास है।