कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

रविवार, 21 जून 2015

राघवचेतन राय -आमजन की त्रासदी के कल्ले


‘‘मैंने गिरी बेचते हुए
सांवले छोकरे को ठुमककर
चलते हुए और हंसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
अगर मेरी बेटी उसे चाहने लगे
तो मैं उसकी उससे शादी कर दूंगा
और अर्जी से मर्जी देने वाले
पड़ोस के उस अपाहिज प्रेमी से कहूंगा
ईस्ट इडिया चली गई तुम भी दफा
हो जाओ।’’
वह गिरी बेचने वाला लड़काशीर्षक कविता की ये पंक्तियां कवि राघवचेतन राय की हैं। राघव के यहां भाषा के प्रति जो बरताव है, वह आश्चर्यचकित करने वाला है। शब्दों के प्रयोग में ऐसी सधी मितव्ययिता आज के डिटेल्सों से भरी कविता के जमाने में मुहाल ही है। फिर पंक्तियों के बीच का खालीपन भी जिस तरह
निहितार्थों को छुपाए चलता है, वह गौर करने लायक है। अरसा पहले सविता सिंह का पहला कविता संग्रह पढ़कर मैं हैरत में रह गया था, अब राघव की कविताओं ने मुझे फिर हैरत में डाला है।
‘‘तालियां पीटते रहते हैं/पर्यटक/गोलकुंडा के ओसारे जिससे/पुराने दिन या शायद/खोई मूसी नदी फिर उठ
जाए//जितना आदमी से आदमी बनता है/आसमान/यानि मालिक हावी हो जाता है/इंसान को फूट और वर्णांधता
का/टापू बनाते हुए//नदियां सूख रही हैं/उजाड़, दुर्ग पर/बज रही हैं बधाइयां/केवल कुचले हुए रहते
हैं/नीचे/प्रतीक्षारत सवारियां/ढोने वाले।’’ (आबादी-1)
यहां हैदराबाद की मूसा हो या दिल्ली की यमुना सबकी वही हालत है। तालियां पीटते पर्यटकों के लिए नदियों की
कीमत पर हम बहुरंगी नाले बनवा रहे हैं और सबको ढोने वाले, घिसटते हुए तालियों का बोझ खींच रहे हैं। आमजन की त्रासदी के कल्ले राघव की कविता में हर जगह फूटते नजर आते हैं। राघव की कविताओं में अंतर्निहित एक राग भी हर जगह बजता दिखता है, विराग से जहां-तहां दबाया जाता हुआ। माने एक मुकम्मल जीवन है जिसमें प्रकृति भी है, अपने उखड़े राग के चिकलन के साथ। इन पंक्तियों को देखें- दक्षिणी
हवा में/आसमान ऐसा नीला हो गया है/जैसे/ऊपर उड़ती चीलों के पंखों पर भी/नीला रंग लग जाएगा/मौसम मेरे मन माफिक/हालांकि शायद ही कभी हुआ/इनके विषय में जैसा भी/कह लो सुन लो।’’
राघव की महाश्वेता देवी और अली सरदार जाफरी को याद करती दो कविताएं हैं। जाफरी का चित्र तो जबरदस्त है- ‘‘सफेद बाल/अपने हाल पर छोड़े हुए/जैसे पहाड़ों पर/लुढ़कती हुई बर्फ/ढोते हुए आता है/सुंदर वृद्ध गमगमाती चांदनी में/कविता कहने।’’ यहां अरुण कमल की बादशाह खान के बुढ़ापे पर लिखी गई
कविता याद आती है।
जीवन के विस्तारों में बहती दुख की नदी राघव के यहां हर जगह बलखाती दिखती है, किनारों को तोड़ती, कठोर
पत्थरों को घिसकर चिकनाती। दुख-दर्द मूल स्वर है कवि का बड़े छोटे लोग  कविता में वे लिखते भी है-  ‘‘दर्द जो रिश्ते में/मेरा सबकुछ लगते हैं/ओझल था मेरे मनोलेख से’’
व्यवस्था के रसूखदार पदों पर रहे हैं राघव, जब ठकुरसुहाती सहज ही होती है और जो काटती जाती आदमी को,
उसके अपने ही दर्द से वह सामने होते हुए भी ओझल होने लगता है। पर आखिर ऐसा होने नहीं दिया राघव ने- तभी तो वंचितों के निर्वाचन क्षेत्र की परख कर पाए वोतथाकथित/छोटे लोगों के पास/आशा की नाव/पतवार और पुल है/सिंहासन की लड़ाई के/कत्लेआम के बाद/बच जाने का सद्भाग्य।’’