कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

एक बादशाह की प्रेम कहानी - कुमार मुकुल

'बाजबहादुर-रूपमती' दिशा प्रकाशन दिल्‍ली से प्रकाशित लक्ष्‍मीदत्‍त शर्मा 'अन्‍जान' की रोचक ऐतिहासिक कृति है। अन्‍जान की यह इकलौती कृति उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी। इस विषय पर हरेकृष्‍ण देवसरे का भी 'मालवा सुलतान' नाम से उपन्‍यास है। यह उपन्‍यास शेरशाह से लेकर हुमायूं और अकबर तक के शासन काल की झलकियां दिखाता चलता है। एक अफगान शासक बाजबहादुर और एक सामान्‍य हिंदू संगीतज्ञ की बेटी रूपमती की यह प्रेमकहानी राजवंशों की प्रेम कहानियों के मुकाबले ज्‍यादा मानवीयता लिए हुए है।
कभी माण्‍डव का शासक रहा बाजबहादुर जंगलों में छुपकर मुगलों से जान बचाता फिरता है। आखिर वह जंगली जातियों और भील सरदारों की सहायता लेकर मुगलों से फिर मुकाबला करता है और अपना राज्‍य वापिस लेता है। पर जब उसे मालूम होता है कि अकबर के एक सरदार की प्रताड़ना का शिकार होकर रूपमती ने जहर खाकर अपनी जान दे दी है तो फिर राज-काज चलाने की उसकी इच्‍छा नहीं रहती।
फिर उसे पता चलता है कि रूपमती को मौत की आगोश में जाने को मजबूर करने वाले मुगल सरदार अदहम खां , जो अकबर का कोका भाई भी था, को इस क्रूरता के एवज में अकबर के हाथों मरना पड़ा तो उसका अकबर के प्रति नजरिया बदलता है। अकबर हिंदू प्रजा का भी उसी तरह ख्‍याल रखता था जैसा मुस्लिम प्रजा का रखता था। उसने रूपमती के ताबूत को उसके मादरेवतन सारंगपुर में वापिस भिजवा कर सम्‍मान के साथ दफनवाया था और उसकी कब्र पर एक खूबसूरत मजार भी बनवाई थी। यह सब जानकर बाजबहादुर का मन अकबर के प्रति बदलता चला गया। उसे बस एक दुख था कि अनजाने में अकबर से एक गलती हो गयी थी। उसने रूपमती को वादा किया था कि वह उसके धर्म का भी अपने धर्म की तरह सम्‍मान करेगा। और अगर जीते जी उसका इंतकाल हुआ तो उसे दफनाने की बजाय चिता को अर्पित करेगा। पर राज-काज के लफड़े में वह अपनी रूपमती को मरते समय देख भी न सका।
दरअसल बाजबहादुर अफगान शासक के साथ एक पहुंचा हुआ गायक भी था। रूपमती पहली मुलाकात में उसके गायक रूप पर ही रीझ गयी थी। फिर उनका प्रेम परवान चढा पर शासक पिता के दबाव में विवश बाजबहादुर को एक सरदार की लड़की से विवाह करना पड़ा पर इससे उसका प्रेम मरा नहीं। उधर रूपमती भी मन से बाजबहादुर को निकाल ना सकी। आखिर पिता की मृत्‍यु के बाद बाजबाहदुर ने रूपमती को अपनाया। इससे नाराज होकर सरदार की पुत्री ने राजमहल छोड मायके का रूख किया और फिर रूपमती के जीते जी वापिस नहीं आयी। हालांकि रूपमती ने कभी रानी बनने की इच्‍छा नहीं जतायी और बाजबहादुर के साथ संगीत की महफिलों में ही रमी रहीं।
यह उपन्‍यास दर्शाता है कि अगर बाजबहादुर इस संगीत प्रेम में ना पड़ता तो संभव था कि भारत का इतिहास कुछ और होता। क्‍येांकि बाजबहादुर लड़ाका भी जबरदस्‍त था। अपनी जिंदगी में उसने कभी किसी से हार नहीं मानी। संगीत के साज के साथ उसने सत्‍ता भी साध ली थी। पर संगीत की म‍हफिलें और बर्बरता आधारित राजसत्‍ताएं साथ-साथ कैसे चलतीं। तो मुगल धीरे-धीरे काबिज होते गए।
हालांकि बाजबहादुर ने भीलों की सहायता से मुगलों से माण्‍डव की सत्‍ता फिर छीन ली थी पर रूपमती की मौत की खबर ने उसके मानस को बदल दिया। उसने सोचा कि शासक तो अकबर भी अच्‍छा ही है। सो अंत में जीती बाजी हारते हुए उसने अकबर के दरबार में एक गायक के रूप में रहने को एक शासक के रूप में रहने पर तरजीह दी।
कहा जा सकता है कि प्रेम और संगीत के सामने बाजबहादुर ने तख्‍तो-ताज को किनारे कर दिया। उसके काल के तमाम शासकों को लोग बिसार चुके हैं तभी तो रूपमती और बाजबहादुर की कथा को लोग अपने-अपनी तरह से लिख रहे हैं।
पुस्‍तक – बाजबहादुर-रूपमती
लेखक - लक्ष्‍मीदत्‍त शर्मा 'अन्‍जान'
प्रकाशक - दिशा प्रकाशन, दिल्‍ली।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

फैज - अंधेरे में सुर्ख लौ

‘फैज की शख्सियत:अंधेरे में सुर्ख लौ’ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज आदि के संपादन में राजकमल प्रकाशन से आयी एक अच्‍छी किताब है, जिससे गुजर कर फैज्‍ के बहुआयामी व्‍यक्त्त्वि को जानने समझ में काफी मदद मिलती है। पुस्‍तक में खुद फैज अहमद फैज की आपबीती की दो‍ किस्‍तों के अलावे उनकी पत्‍नी एलिस फैज और जेल में साथ समय बिताने वाले व अन्‍य मित्रों के संस्‍मरण हैं।
आपबीती को पढकर यह जाहिर होता है कि फैज का जीवन सहज नहीं था। उन्‍होंने जिंदगी में काफी उठा-पटक देखी थी। उनके पिता उन्‍हें बताया करते थे कि बचपन में वे चरवाहे थे फिर आगे वे जिंदगी की चढान चढते गए और कैंब्रिज में पढाई आदि की और अंग्रेजों के वफादार हो गये थे और शान की जिंदगी बितायी थी। पिता को याद करते फैज एक जगह लिखते हैं कि उनका नाम सुल्‍तान था और मैं यह कह सकता हूं कि मेरे पिता राजा थे। पर विडंबना यह रही कि मरते समय तक उनके पिता ने अपनी सारी संपत्ति मौज-मस्‍ती में गंवा दी थी और विरासत में फैज के लिए संघर्ष छोड गये थे। फैज लिखते हैं कि जब पिता गुजरे तो घर में खाने तक को कुछ नहीं था।
1941 द्वितीय विश्‍वयुद्ध के समय उनका पहला कविता संकलन आया था जो खूब बिका था। पर युद्ध के बढने पर फैज ने फौज ज्‍वायन कर लिया। उस समय तक उनमें वामपंथी रूझान पैदा हो चुकी थी और उन पर फौज में शक किया जाता था। युद्ध की समाप्ति पर उन्‍होंने खुद फौज से अलग कर लिया। आगे 1947 में वे पाकिस्‍तान टाइम्‍स के संपादक हुए और चार साल संपादकी की। इसी समय अपने एक फौजी मित्र जनरल अकबर खान के साथ मिलकर सरकार पलटने के षडयंत्र में उन्‍हें जेल हुयी। जेल में पढने-लिखने का काफी वक्‍त होने के चलते उनकी कलम वहां लगातार चलती रही।
यह सब पढते जाहिर होता है कि फैज में जिंदगी को जीने का दुर्निवार जज्‍बा था जो जेल के कमरों को भी अध्‍ययन कक्ष में बदल देता था। ऐसी मिसालें हमारे यहां पं. नेहरू, गांधी आदि ने भी दी हैं जिन्‍होंने जेल में रह कर काफी कुछ पढा लिखा।
अपनी शरीफाना बनावट का श्रेय फैज महिलाओं को देते हैं जिनकी सोहबत में वे आम उज्‍जडपन से बचे रहे। फैज के पारिवारिक मित्र आफताब अहमद लिखते हैं – वो किसी से कोई कडवी या सख्‍त बात नहीं करते थे। शायद इसीलिए जीवन की कठिनइयों को वे अपने ढंग से झेल सके। जब उन्‍हें सरकार पलटने के इलजाम में जेल हुयी तो कुछ अखबारों ने उन्‍हें लेकर गद्दार विशेषांक तक निकाला। उस समय फैज ने लिखा –
जो हम पे गुजरी सो गुजरी, मगर शबे हिज्रां
हमारे अश्‍क तेरी आकबत संवार चले।
फैज की नाजुकमिजाजी की बाबत उनके साथ जेल में चार साल गुजार चुके साथी मेजर मुहम्‍मद इश्‍हाक लिखते हैं - ...यूं ही किसी ने त्‍योरी चढा रखी हो, उनकी तबीयत जरूरत खराब हो जाती है, और इसके साथ ही शायरी की कैफियत काफूर हो जाती है।
किताब फैज से जुडे कई निजी प्रसंग को सामने लाती है, जैसे कि वे छिपकलियों से बहुत घिनाते थे और आस पास दिख जाने पर बिछावन पर सो नहीं पाते थे। पाकिस्‍तान के फौजी शासन के समय जब वहां तमाम हिंदुस्‍ताने से जुडे रचनाकारों को पढने पर पाबंदी लगा दी गयी थी और रेडियो से बस इकबाल की रचनाओं का प्रसारण होता था तब फैज हिंदुस्‍तान रेडियों से अमीर खुसरो, फैयाज खां आदि को सुना करते थे।
पुस्‍तक के दूसरे खंड में फैज की खतो-किताबत और बातचीत को सं‍कलित किया गया है। जिसमें नूर जहीर और जहूर सिद्दीकी ने फैज और एलिस के खतों को सामने रखा है। इसके अलावे इब्‍बार रब्‍बी , नईम अहमद आदि से फैज की बातचीत भी इसमें शामिल है। कुल मिलाकर यह पुस्‍तक फैज को समझने में काफी हद तक मददगार साबित होती है।
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पुस्‍तक – फैज की शख्सियत: अंधेरे में सुर्ख लौ
संपादन – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज
प्रकाशक – राजकमल

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

अरूण कमल का भोगवादी गद्य – पारचूनी परचम

'मैं तो चारण हूं ...अरूण कमल' 

 “कविता और समय´´ पुस्तक में संकलित `कविता का आत्म संघर्ष´ शीर्षक टिप्पणी में मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को याद करते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “कौन-सा शब्द हम चुनें और कौन-सा छोड़ दें। यह बहुत महत्‍वपूर्ण होता है।…बहुत बार तो हम सिर्फ शब्दों के प्रचलन को जांच करके पता लगा सकते हैं कि कवि का समाज से संपर्क कैसा है, कौन से विषयों को वह चुनता है और फिर उसकी पूरी दृष्टि कैसी है। यानी विषय से शुरू करके एक शब्द का, बल्कि हम तो कहेंगे एक मात्राा तक का जो चुनाव होता है वहां तक यह बहुत ही महत्‍वपूर्ण प्रक्रिया चलती रहती है।´´
उपरोक्त गंभीर वक्तव्य पुस्तक की `टिप्पणियां´ के अंतर्गत संकलित अपेक्षाकृत हल्के माने गए निबंधों में से एक से है। पुस्तक के आरंभिक `आलोचना´ खंड का अंतिम आलेख `हिंदी के हित का अभिमान वह´ नामवर सिंह पर है। आलोचना खंड में ही रघुवीर सहाय पर `न्याय की लड़ाई के पक्ष में´ शीर्षक से लिखते हुए अरुण कमल कहते हैं- “किसी भी कवि की निपुणता और उसके संपूर्ण काव्य-आचार तथा जीवन-दृष्टि की जांच एक उपयुक्त कविता के जरिए हो सकती है।´´ इसी को ध्‍यान में रख मैंने अरुण कमल के गद्य विवेक को समझने के लिए नामवर सिंह पर लिखा उनका यह आलेख चुना है। ध्‍यान से पढ़ने पर यह आलेख व्यंग्याभिनंदन लगता है। यानी व्यंग्य और अभिनंदन का मिश्रण। नामवर सिंह पर लिखित यह आलेख ग्यारह पृष्ठों में है जिसमें तीन पृष्ठ सीधे उनकी पुस्तक `कहना न होगा´ से उद्ध्‍ृत हैं।
अपने अभिनंदनालेख के अंतिम पैरों में गंभीर होते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “आलोचक पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्री (बोल्ड लेटर में) है जिसके बिना कोई भी साहित्य-भोज न तो आरंभ हो सकता है, न पूर्ण, न पवित्र।´´
लेखन में मात्रा और ध्‍यान की महत्ता बताने वाले अरुण कमल की ध्‍वनियों का संसार बाजारपरक और खाऊ किस्म का लगता है। वे आलोचना शोभा बढ़ाने (अभिनंदन) के लिए लिखते हैं। फिर आलोचना उनके लिए पवित्री (चरणामृत-परसादी) भी है और साहित्य भोज। अगर अरुण कमल मलयज से उनके समय के विवेक की सफाई मांग सकते हैं तो क्या हमें भी यह अधिकार मिलता है कि हम उनसे इन महाप्राण ध्‍वनियों का निहितार्थ पूछें? इसी पुस्तक में अरुण कमल रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति पर आपत्ति करते लिखते हैं कि “यह कहने का भद्दा ढंग है´´ आलोचना पर बात करने का अरुण कमल का उपरोक्त ढंग कैसा है? क्या वह भोगवादी है? और पूंजीवादी भी, जिसका अच्छा खाका मुक्तिबोध अपनी `पूंजीवादी समाज के प्रति´ कविता में खींचते हैं।
“इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द-जितना ढोंग, जितना भोग है निबंध।´´
आगे अरुण कमल नामवर सिंह द्वारा अपने प्रिय आलोचक एफआर लिविस पर की गई टिप्पणी को ही नामवर जी के लिए उद्धृत कर देते हैं। इस तरह घर से एक पाई (शब्द) लगाए बिना ही रंग चोखा कर लेते हैं। फिर वे लिखते हैं, “हो सकता है डॉ नामवर सिंह में कई भटकाव हों…भटकना पसंद करूंगा। नामवर सिंह के साथ…।´´ `हो सकता है´, `शायद´, `संभावित´, `लेकिन´ के बहुप्रयोग वाली अरुण कमल की यह भाषा ही भटकाने वाली है। भटकना अरुण कमल को पसंद भी है! पर क्या यह अभिनंदन नामवर सिंह को भटका सकेगा! या वह पहले ही भटक चुके हैं? कहीं पर एक बार नामवर सिंह ने अपनी खूबी बताते हुए लिखा था- “मेरी हिम्मत देखिए मेरी तबीयत देखिए, सुलझे हुए मसले को फिर से उलझाता हूं मैं।´´
काव्य भाषा की समझ अरुण कमल को चाहे जितनी हो पर अपने समय की समझ खूब है। तभी तो बाजार की भाषा पर हमले की तेजी को देखते उन्हें प्रतिकार में कविता पर `अंधाधुंध टिप्पणी करने की जरूरत पड़ती है। इस टिप्पणी का शीर्षक `पारचून´ देते हैं वे। `पारचून´ में वे लिखते हैं “यदि ईश्वर है तो यह पूरी पृथ्वी उसके लिए पारचून की एक दुकान ही तो है, कविता भी ऐसी ही अच्छी लगती है, ढेर-ढेर चीज़ें, बेइंतहा, सृष्टि की एक अद्भुत नुमाइश-पारचून की दुकान।´´
कुल लब्बो-लुआब यह कि आलोचना अगर पवित्री (परसादी) है तो कविता पारचून की दुकान। चलिए कविता की कुछ तो इज्जत रखी। परसादी की तरह `मोफत´ की तो नहीं कहा। यूं आज मोफतखोरों का ही बोल-बाला है।
अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में अरुण कमल खुद को माक्र्सवादी बताते हैं। चलिए माक्र्सवाद का नया अर्थशास्त्र `पारचून´ में दृष्टिगोचर हुआ। पर सवाल उठता है कि फिर वे कवि श्रीकांत वर्मा को बाजार और उदारीकरण की पक्षधर कांग्रेस के प्रवक्ता होने के चलते क्यों कोसते हैं!
`मगध´ पर लिखते अरुण कमल लिखते हैं“मैं लगातार किंचित विस्मय के साथ सोचता रहा कि एक समर्थ कवि जो शासक दल का उच्चािधकारी और प्रवक्ता है, वह आज कैसी कविताएं लिख सकता है…एक कवि जो तत्कालीन जीवन के कष्टों और विडंबनाओं का साक्षी नहीं हो सकता, अन्याय और संहार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। वह काल और शाश्वत जीवन के बारे में लिखने का अधिकारी है? पता नहीं ये विचार कवि द्वारा श्रीकांत वर्मा पुरस्कार लेने के पहले के हैं या बाद के। पुरस्कार के निर्णय में क्या आज भी श्रीकांत वर्मा की कांग्रेेसी सांसद पत्नी की भागीदारी नहीं है! क्या श्रीकांत वर्मा के बेटे की जालसाजी उजागर होने के बाद कवि के विचार उस पुरस्कार के प्रति बदले हैं? नहीं, तो श्रीकांत वर्मा से ऐसे सवालों के मानी क्या हैं? श्रीकांत वर्मा की पुस्तक `मगध´ उनके विवादास्पद व्यक्तित्व के बाद भी जिस निर्विवादिता को प्राप्त कर चुकी है, क्या उससे अरुण कमल को जलन होती है?
फिर अकादमी पुरस्कार भी क्या उसी कांग्रेसी या भाजपाई संस्कृति का एक हिस्सा नहीं है जिसके लिए अरुण कमल श्रीकांत वर्मा के कविता के अिèाकार को ही सवालों के घेरे में ला देते हैं। अकादमियों के स्वरूप पर प्रकाश डालते नामवर सिंह लिख चुके हैं- “नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक `एलीटिस्ट´ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।´´
अरुण कमल की भाषा में `भोग´ और `चारण´ वृत्ति को बढ़ावा देने वाली ध्‍वनियां सर्वाधिक हैं। उनके लेखन का अधिकांश आपको एक किंकर्तव्यविमूढ़ता में ला खड़ा करता है। वे नामवर सिंह पर लिखते हैं कि `आलोचक का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखाना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।´ क्या साहित्य में जगाने से मतलब नींद खराब करना होता है! फिर `पहला´ के पूर्व `सबसे´ का अनोखा प्रयोग! दरअसल कहने को बातों का टोटा होने पर ही ऐसी जड़ाऊ भाषा गढ़नी पड़ती है।
अरुण कमल के अनुसार नामवर सिंह हिंदी के हित का अभिमान हैंµ“पूंजीभूत मेधा, नाभि, बंजारा, अकेले ही संपूर्ण प्रतिपक्ष हैं।´´ “और अविस्मरणीय अनुभव है उन्हें सुनना-निष्कम्प स्वर और `सस्वर गद्य´। `विचार दुर्भ्रिक्ष´ में विचारों का छप्पन भोग। इस छप्पन भोग के बिना शोभा ही नहीं बनती अरुण कमल के पैरे की। आखिर दुर्भिक्ष में भी `छप्पन भोग´ की पुरोहित कामना किस मानस को दर्शाती है?
मतलब साफ है कि कहीं आलोचना पवित्राी है, कहीं छप्पन भोग, कहीं दुधारू। या यूं कहें कि जो दुधारू है, वही आलोचना है। कहावत भी है कि दुधारू गाय की दो लात सही। सो अरुण कमल की नजर गाय के दूध पर रहती है। जब तक प्रशस्ति है तब-तक दुधारू है। फिर उन्होंने कविता को खूंटा बना डाला है। भला खूंटे से बंधे बिना, दुधारू हुए बिना आलोचना कैसे हो सकती है! जाने खुद पर ऐसी दुधारू शैली में आलेख देख नामवर सिंह क्या सोचते होंगे? क्योंकि “वागाडंबर भाषा का सबसे बड़ा दोष है´´ यह नामवर सिंह का ही कथन है।
कभी आलोचना को वे सिल (सिलबट्टा) बताते हैं जिस पर विवेक की छूरी सान चढ़ती है, कभी उसे ऐसा शिकारी कुत्ता बताते हैं जो सूंघ नहीं सकता। कुल मिला कर अरुण कमल के नामवर सिंह पर लिखे इस लेख के आधार पर आलोचना पर एक पॉप गीत तैयार किया जा सकता। वो जो गाना है ना गोविंदा वाला, “…मेरी मरजी। आलोचना तेरा ये करूं वो करूं मेरी मरजी।´´
फिर वे लिखते हैं कि नामवर सिंह के निष्कर्ष रचना के निष्कर्ष हैं। पर वे कौन से निष्कर्ष हैं, इस पर वे एक पंक्ति नहीं लिखते। भई जैसे `कहना न होगा´ से लेकर तीन पृष्ठ भरे वैसे ही नामवर सिंह पर `पहल´ के अंक से कुछ पृष्ठ निष्कर्ष पाठकों को उपलब्ध करा देते उद्धरण के रूप में। जैसे- एफआर लिविस पर टिप्पणी उपलब्ध कराई है।
आगे वे आलोचक के कर्तव्य की गंभीरता बतलाते हुए लिखते हैं“ढेर सारी कविताओं के, बीच ऐसी कविताओं को पहचानना भी दुष्कर है, जो कि एक श्रेष्ठ आलोचक को करना होता है- गाड़ी दौड़ में सबसे तेज दौड़ने वाली गाड़ी के साथ-साथ नजर टिकाए हुए – दौड़ना।´´ यहां कविता लेखन को घुड़दौड़ बना दिया गया। और आलोचक सट्टेबाज। नामवर सिंह का जो वक्तव्य अरुण कमल को मार्मिक लगा वह यह है कि “मैं तो चारण हूं, प्रत्येक राज-कवि का गुण गाने को तत्पर।´´ अकादमी पुरस्कार के बाद राज-कवि होने में काहे का संदेह।
आगे अरुण कमल लिखते हैं, “सृजन का अर्थ है शिष्ठ-भाषा को लोकभाषा के पास गर्भाधान हेतु ले जाना।´´ मतलब एक सांड भाषा दूसरी गाय भाषा। आगे वे दो तरह की आलोचना भी बताते हैं। एक पत्रकारी आलोचना जो दाएं-बाएं मुंह मारती चलती है, दूसरी अफसरी आलोचना जो गठिया पीिड़त बिना देह हुक्म चलाती है। क्या उनका आशय अज्ञेय, रघुवीर सहाय और अशोक वाजपेयी से है! और नामवर सिंह को वे दोनों के विरुद्ध पाते हैं। `कहना न होगा´ पर वे लिखते हैं, इसमें है, “विचार की एक मुख्यधारा और फिर सहायक नदियां। एक मुख्य घर और दालान बैठका।´´ गतिशील नदी और घर-बैठका का तुलनात्मक भानुमतीय विवेचन अरुण कमल के वश की ही बात है। वे कहते हैं कि नामवर सिंह की इस किताब के आधार पर `गाइड´ या `मैनुअल´ तैयार किया जा सकता है। कुल मिलाकर अरुण कमल कविता की अकादमिक पढ़ाई से बाहर आलोचना का काम समझ ही नहीं पाते। अंत में वे नामवर सिंह को तालस्तोय बताते हुए उनमें `लोमड़ी´ और `साही´ की क्षमताएं एक साथ देख पाते हैं। अच्छा है `साही´ पर एक केले का थंब गिरा देने की जरूरत है और लोमड़ी की बाजारू मुफ्तखोरी से तो लड़ने की जरूरत पड़ेगी ही।

पटना से प्रकाशित पाक्षिक न्‍यूज ब्रेक में यह टिप्‍पणी अरसा  पहले प्रकाशित हो चुकी है।